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मिरे पहलू से जो निकले वो मिरी जाँ हो कर | शाही शायरी
mere pahlu se jo nikle wo meri jaan ho kar

ग़ज़ल

मिरे पहलू से जो निकले वो मिरी जाँ हो कर

ग़ुलाम भीक नैरंग

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मिरे पहलू से जो निकले वो मिरी जाँ हो कर
रह गया शौक़ दिल-ए-ज़ार में अरमाँ हो कर

ज़ीस्त दो रोज़ा है हँस-खेल के काटो इस को
गुल ने ये राज़ बताया मुझे ख़ंदाँ हो कर

अश्क-ए-शादी है ये कुछ मुज़्दा सबा लाई है
शबनम-आलूदा हुआ फूल जो ख़ंदाँ हो कर

ज़र्रा-ए-वादी-ए-उल्फ़त पे मुनासिब है निगाह
फ़लक-ए-हुस्न पे ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ हो कर

शोख़ियाँ उस निगह-ए-ज़ेर-ए-मिज़ा की मत पूछ
दिल-ए-आशिक़ में खुबी जाती है पैकाँ हो कर

शिद्दत-ए-शौक़-ए-शहादत का कहूँ क्या आलम
तेग़-ए-क़ातिल पड़ी सर पे मिरे एहसाँ हो कर

अब तो वो ख़ब्त मिरे इश्क़ को कह कर देखें
ख़ुद ही आईने को तकने लगे हैराँ हो कर