मिरे मुक़द्दर में जो लिखा था नसीब से वो पहुँच न पाया
गिरा तो था आसमान से कुछ खजूर में रह गया अटक कर
मुसीबत आ तो गई थी लेकिन हुई वो आप उल्टे पाँव रुख़्सत
लगा जो था ज़िंदगी का काँटा निकल गया चार दिन खटक कर
वहाँ हैं अब हम कि क्या बताएँ वो पेच-ओ-ख़म हैं कि कुछ न पूछो
ये चाल राह-ए-तलब की देखो कि चल रही है मटक मटक कर
ये कैसी वहशत-असर ख़बर है पता तो ऐ बाग़बाँ लगाना
खड़े हुए कान क्यूँ गुलों के कली ने क्या कह दिया चटक कर
किया जो डर डर के अर्ज़-ए-मतलब तो मुझ से ये कह दिया उन्हों ने
सबक़ नहीं याद अभी ये तुम को सुना रहे हो अटक अटक कर
ख़ुद अपना रस्ता सुधार 'नातिक़' न फ़िक्र कर शैख़-ओ-बरहमन की
वहीं तो जाते हैं रास्ते सब कोई कहाँ जाएगा भटक कर
ग़ज़ल
मिरे मुक़द्दर में जो लिखा था नसीब से वो पहुँच न पाया
नातिक़ लखनवी