मिरे दिल को शौक़-ए-फ़ुग़ाँ नहीं मिरे लब तक आती दुआ नहीं
वो दहन हूँ जिस में ज़बाँ नहीं वो जरस हूँ जिस में सदा नहीं
न तुझे दिमाग़-ए-निगाह है न किसी को ताब-ए-जमाल है
उन्हें किस तरह से दिखाऊँ मैं वो जो कहते हैं कि ख़ुदा नहीं
किसे नींद आती है ऐ सनम तिरे ताक़-ए-अबरू की याद में
कभी आश्ना-ए-तह-ए-बग़ल सर-ए-मुर्ग़-ए-क़िबला-नुमा नहीं
अजब इस का क्या न समाउँ मैं जो ख़याल-ए-दुश्मन-ओ-दोस्त है
वो मक़ाम हूँ कि गुज़र नहीं वो मकान हूँ कि पता नहीं
ये ख़िलाफ़ हो गया आसमाँ ये हवा ज़माने की फिर गई
कहीं गुल खिले भी तो बूँद से कहीं हुस्न है तो वफ़ा नहीं
मरज़-ए-जुदाई-ए-यार ने ये बिगाड़ दी है हमारी ख़ू
कि मुआफ़िक़ अपने मिज़ाज के नज़र आती कोई दवा नहीं
मुझे ज़ाफ़रान से ज़र्द-तर ग़म-ए-हिज्र-ए-यार ने कर दिया
नहीं ऐसा कोई ज़माने में मिरे हाल पर जो हँसा नहीं
मिरे आगे उस को फ़रोग़ हो ये मजाल क्या है रक़ीब की
ये हुजूम-ए-जल्वा-ए-यार है कि चराग़-ए-ख़ाना को जा नहीं
चलें गो कि सैकड़ों आँधियाँ जलें गरचे लाख घर ऐ फ़लक
भड़क उठ्ठे 'आतिश'-ए-तूर फिर कोई इस तरह की दवा नहीं
ग़ज़ल
मिरे दिल को शौक़-ए-फ़ुग़ाँ नहीं मिरे लब तक आती दुआ नहीं
हैदर अली आतिश