EN اردو
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से | शाही शायरी
mera ye zaKHm sine ka kahin bharta hai sine se

ग़ज़ल

मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

;

मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
लगाए ऐ सनम जब तक न तू सीने को सीने से

फ़लक ने शादमाँ देखा जिसे आया उसी के सर
ख़ुदा महफ़ूज़ हर इंसाँ को रक्खे इस कमीने से

जो ले जाते हैं दिल मेरा बचाना ठेस से उस को
वो है ऐ संग-दिल नाज़ुक ज़्यादा आबगीने से

न होगी दूर ग़श मेरी गुलाब-ओ-मुश्क़-ओ-अंबर से
मिरे रुख़ को तू धो ऐ गुल-बदन अपने पसीने से

कहीं ये साफ़ होता है कुदूरत और कीने से
अगर ज़ख़्म-ए-जिगर मिल भी गया दुश्मन के सीने से

दिल इक दहने रहा गर दूसरा दाइम रहा बाएँ
न दो बाहम हुए दिल गो मिला सीना भी सीने से

कोई रंज-ओ-अलम आए न दिल के पास ऐ साक़ी
जो हो आग़ाज़-ए-मय-नोशी मोहर्रम के महीने से

तू चाहे दूसरों को और हम मरते फिरें तुझ पर
हमारे वास्ते मरना है बेहतर ऐसे जीने से

समझना चाहिए कीने से सीना है भरा उस का
किया है 'मशरिक़ी' इंकार जिस ने मय के पीने से