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मिरा प्यारा है ना-फ़रमाँ हमेशा और प्यारों में | शाही शायरी
mera pyara hai na-farman hamesha aur pyaron mein

ग़ज़ल

मिरा प्यारा है ना-फ़रमाँ हमेशा और प्यारों में

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

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मिरा प्यारा है ना-फ़रमाँ हमेशा और प्यारों में
नहीं देखा कसू ने लाला-रू ऐसा हज़ारों में

अपस उश्शाक़ कूँ पहचानते हैं ख़ूब ख़ुश-चश्माँ
अजब मर्दुम-शनासी है नराइन के इशारों में

तिरी ज़ुल्फ़ाँ के पेच-ओ-ताब की तारीफ़ कूँ सुन कर
गया पाताल को बासुक ख़जालत खींच मारों में

बसे हैं शौक़ सूँ जा कर गुलों में रात कूँ शायद
कि आती है गुल-अंदामाँ के बासी बास हारों में

डरे क्यूँ शेर-दिल-आशिक़ रक़ीबाँ के बिदकने सूँ
कोई बावर नहीं करता शुजाअ'त इन चकारों में

दराज़ी जब दिया यल्दाँ को तेरी ज़ुल्फ़ लम्बी ने
बुराई तब लगी करने को हर शब बैठ तारों में

अपस कूँ ख़ाक कर गुलज़ार होना है अगर तुझ कूँ
नहीं आया नज़र में सब्ज़ा-ख़ार ऊपर बहारों में

बिला गर्दां हुए गर देख कर आहू अचम्भा नईं
कि होए है महव नर्गिस तेरी अँखियाँ के नज़ारों में

परी-रूयान-ए-गुलशन सूँ ले आई सीम-ओ-ज़र नर्गिस
नज़र-बाज़ाँ बजा गिनते हैं उस कूँ मालदारों में

न कह सीमाब के मानिंद मेरे दिल कूँ ऐ चंचल
तिरा बेताब है मुम्ताज़ सारे बे-क़रारों में

निकलना माह-रू के दाम से दुश्वार है याराँ
रहा है 'मुबतला' का दिल उलझ ज़ुल्फ़ाँ के तारों में