मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
कि मेरे दोस्त का दुश्मन मिरी अमान में है
वो ख़ुश-नसीब परिंदा है जो उड़ान में है
कि तीर निकला नहीं है अभी कमान में है
तुम्हारा नाम लिया था कभी मोहब्बत से
मिठास उस की अभी तक मिरी ज़बान में है
तुम आके लौट गए फिर भी हो यहीं मौजूद
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू मिरे मकान में है
कहाँ मिलेगा हसीनों को दौर-ए-हाज़िर में
वो शाहज़ादा जो परियों की दास्तान में है
है जिस्म सख़्त मगर दिल बहुत ही नाज़ुक है
कि जैसे आईना महफ़ूज़ इक चट्टान में है
तुझे जो ज़ख़्म दे तू उस को फूल दे 'दाना'
यही उसूल-ए-वफ़ा तेरे ख़ानदान में है
ग़ज़ल
मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
अब्बास दाना