मिरा दिल है मुश्ताक़ उस गुल-बदन का
कि ये बाग़ इक गुल है जिस के चमन का
वही ज़ुल्फ़ है जिस की निकहत से अब तक
पड़ा ख़ून सूखे है मुश्क-ए-ख़ुतन का
वही लाल-ए-लब है कि हसरत से जिस के
जिगर आज तक ख़ूँ है लाल-ए-यमन का
अजब सैर देखी 'नज़ीर' उस चमन की
अभी वस्ल था नर्गिस-ओ-नस्तरन का
अभी यक-दिगर जम्अ थे सुम्बुल-ओ-गुल
अभी था बहम जोश सर्व-ओ-समन का
अभी चहचहे बुलबुलों के अयाँ थे
अभी शोर था क़ुमरी-ए-नारा-ज़न का
घड़ी भर के ही ब'अद देखा ये आलम
कि नाम-ओ-निशाँ भी न वाँ था चमन का
ग़ज़ल
मिरा दिल है मुश्ताक़ उस गुल-बदन का
नज़ीर अकबराबादी