काश उठीं हम भी गुनहगारों के बीच 
हूँ जो रहमत के सज़ा-वारों के बीच 
जी सदा उन अब्रूओं ही में रहा 
की बसर हम-उम्र तलवारों के बीच 
चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर 
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच 
हैं अनासिर की ये सूरत-बाज़ियाँ 
शो'बदे क्या क्या हैं उन चारों के बीच 
जब से ले निकला है तो ये जिंस-ए-हुस्न 
पड़ गई है धूम बाज़ारों के बीच 
आशिक़ी-ओ-बे-कसी-ओ-रफ़तगी 
जी रहा कब ऐसे आज़ारों के बीच 
जो सरिश्क उस माह बिन झुमके है शब 
वो चमक काहे को है तारों के बीच 
उस के आतिशनाक रुख़्सारों बग़ैर 
लोटिए यूँ कब तक अँगारों के बीच 
बैठना ग़ैरों में कब है नंग-ए-यार 
फूल गुल होते ही हैं ख़ारों के बीच 
यारो मत उस का फ़रेब-ए-मेहर खाओ 
'मीर' भी थे उस के ही यारों के बीच
        ग़ज़ल
काश उठीं हम भी गुनहगारों के बीच
मीर तक़ी मीर

