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शब-ए-दर्द-ओ-ग़म से अर्सा मिरे जी पे तंग था | शाही शायरी
shab-e-dard-o-gham se arsa mere ji pe tang tha

ग़ज़ल

शब-ए-दर्द-ओ-ग़म से अर्सा मिरे जी पे तंग था

मीर तक़ी मीर

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शब-ए-दर्द-ओ-ग़म से अर्सा मिरे जी पे तंग था
आया शब-ए-फ़िराक़ थी या रोज़-ए-जंग था

कसरत में दर्द-ओ-ग़म की न निकली कोई तपिश
कूचा जिगर के ज़ख़्म का शायद कि तंग था

लाया मिरे मज़ार पे उस को ये जज़्ब-ए-इश्क़
जिस बेवफ़ा को नाम से भी मेरे नंग था

देखा है सैद-गा में तिरे सैद का जिगर
बाआनका छिन रहा था पे ज़ौक़-ए-ख़दंग था

दिल से मिरे लगा न तिरा दिल हज़ार हैफ़
ये शीशा एक उम्र से मुश्ताक़ संग था

मत कर अजब जो 'मीर' तिरे ग़म में मर गया
जीने का इस मरीज़ के कोई भी ढंग था