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क्या कहिए कि ख़ूबाँ ने अब हम में है क्या रखा | शाही शायरी
kya kahiye ki KHuban ne ab hum mein hai kya rakha

ग़ज़ल

क्या कहिए कि ख़ूबाँ ने अब हम में है क्या रखा

मीर तक़ी मीर

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क्या कहिए कि ख़ूबाँ ने अब हम में है क्या रखा
इन चश्म-सियाहों ने बहुतों को सुला रखा

जल्वा है उसी का सब गुलशन में ज़माने के
गुल फूल को है उन ने पर्दा सा बना रखा

जूँ बर्ग ख़िज़ाँ-दीदा सब ज़र्द हुए हम तो
गर्मी ने हमें दिल की आख़िर को जला रखा

कहिए जो तमीज़ उस को कुछ अच्छे बुरे की हो
दिल जिस कसो का पाया चट उन ने उड़ा रखा

थी मस्लक-ए-उल्फ़त की मशहूर ख़तरनाकी
मैं दीदा-ओ-दानिस्ता किस राह में पा रखा

ख़ुर्शीद-ओ-क़मर प्यारे रहते हैं छुपे कोई
रुख़्सारों को गो तू ने बुर्क़ा से छुपा रखा

चश्मक ही नहीं ताज़ी शेवे ये उसी के हैं
झमकी सी दिखा दे कर आलम को लगा रखा

लगने के लिए दिल के छिड़का था नमक मैं ने
सौ छाती के ज़ख़्मों ने कल देर मज़ा रखा

कुश्ते को इस अबरू के क्या मेल हो हस्ती की
मैं ताक़ बुलंद ऊपर जीने को उठा रखा

क़तई है दलील ऐ 'मीर' उस तेग़ की बे-आबी
रहम उन ने मिरे हक़ में मुतलक़ न रवा रखा