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रात प्यासा था मेरे लोहू का | शाही शायरी
raat pyasa tha mere lohu ka

ग़ज़ल

रात प्यासा था मेरे लोहू का

मीर तक़ी मीर

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रात प्यासा था मेरे लोहू का
हूँ दिवाना तिरे सग को का

शोला-ए-आह जूँ-तूँ अब मुझ को
फ़िक्र है अपने हर बिन मू का

है मिरे यार की मिसों का रश्क
कुश्ता हूँ सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू का

बोसा देना मुझे न कर मौक़ूफ़
है वज़ीफ़ा यही दुआ-गो का

मैं ने तलवार से हिरन मारे
इश्क़ कर तेरी चश्म-ओ-अबरू का

शोर क़ुलक़ुल के होती थी माने
रीश-ए-क़ाज़ी पे रात मैं थूका

इत्र-आगीं है बाद-ए-सुब्ह मगर
खुल गया पेच-ए-ज़ुल्फ़ ख़ुश्बू का

एक दो हूँ तो सहर-ए-चश्म कहूँ
कारख़ाना है वाँ तो जादू का

'मीर' हर-चंद मैं ने चाहा लेक
न छुपा इश्क़-ए-तिफ़्ल बद-ख़ू का

नाम उस का लिया इधर-ऊधर
उड़ गया रंग ही मिरे रू का