रात प्यासा था मेरे लोहू का
हूँ दिवाना तिरे सग को का
शोला-ए-आह जूँ-तूँ अब मुझ को
फ़िक्र है अपने हर बिन मू का
है मिरे यार की मिसों का रश्क
कुश्ता हूँ सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू का
बोसा देना मुझे न कर मौक़ूफ़
है वज़ीफ़ा यही दुआ-गो का
मैं ने तलवार से हिरन मारे
इश्क़ कर तेरी चश्म-ओ-अबरू का
शोर क़ुलक़ुल के होती थी माने
रीश-ए-क़ाज़ी पे रात मैं थूका
इत्र-आगीं है बाद-ए-सुब्ह मगर
खुल गया पेच-ए-ज़ुल्फ़ ख़ुश्बू का
एक दो हूँ तो सहर-ए-चश्म कहूँ
कारख़ाना है वाँ तो जादू का
'मीर' हर-चंद मैं ने चाहा लेक
न छुपा इश्क़-ए-तिफ़्ल बद-ख़ू का
नाम उस का लिया इधर-ऊधर
उड़ गया रंग ही मिरे रू का
ग़ज़ल
रात प्यासा था मेरे लोहू का
मीर तक़ी मीर