क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया
दोश-ए-हवा पे रंग-ए-गुल-ओ-यासमन गया
बरगशता-बख़्त देख कि क़ासिद सफ़र से मैं
भेजा था उस के पास सो मेरे वतन गया
ख़ातिर-निशाँ ऐ सैद-फ़गन होगी कब तिरी
तीरों के मारे मेरा कलेजा तो छन गया
यादश-ब-ख़ैर दश्त में मानिंद-ए-अंकबूत
दामन के अपने तार जो ख़ारों पे तन गया
मारा था किस लिबास में उर्यानी ने मुझे
जिस से तह-ए-ज़मीन भी मैं बे-कफ़न गया
आई अगर बहार तो अब हम को क्या सबा
हम से तो आशियाँ भी गया और चमन गया
सरसब्ज़ मुल्क-ए-हिन्द में ऐसा हुआ कि 'मीर'
ये रेख़्ता लिखा हुआ तेरा दकन गया

ग़ज़ल
क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया
मीर तक़ी मीर