EN اردو
क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया | शाही शायरी
qabu KHizan se zoaf ka gulshan main ban gaya

ग़ज़ल

क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया

मीर तक़ी मीर

;

क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया
दोश-ए-हवा पे रंग-ए-गुल-ओ-यासमन गया

बरगशता-बख़्त देख कि क़ासिद सफ़र से मैं
भेजा था उस के पास सो मेरे वतन गया

ख़ातिर-निशाँ ऐ सैद-फ़गन होगी कब तिरी
तीरों के मारे मेरा कलेजा तो छन गया

यादश-ब-ख़ैर दश्त में मानिंद-ए-अंकबूत
दामन के अपने तार जो ख़ारों पे तन गया

मारा था किस लिबास में उर्यानी ने मुझे
जिस से तह-ए-ज़मीन भी मैं बे-कफ़न गया

आई अगर बहार तो अब हम को क्या सबा
हम से तो आशियाँ भी गया और चमन गया

सरसब्ज़ मुल्क-ए-हिन्द में ऐसा हुआ कि 'मीर'
ये रेख़्ता लिखा हुआ तेरा दकन गया