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कसरत-ए-दाग़ से दिल रश्क-ए-गुलिस्ताँ न हुआ | शाही शायरी
kasrat-e-dagh se dil rashk-e-gulistan na hua

ग़ज़ल

कसरत-ए-दाग़ से दिल रश्क-ए-गुलिस्ताँ न हुआ

मीर तक़ी मीर

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कसरत-ए-दाग़ से दिल रश्क-ए-गुलिस्ताँ न हुआ
मेरा दिल ख़्वाह जो कुछ था वो कभू याँ न हुआ

जी तो ऐसे कई सदक़े किए तुझ पर लेकिन
हैफ़ ये है कि तनिक तू भी पशेमाँ न हुआ

आह में कब की कि सर्माया-ए-दोज़ख़ न हुई
कौन सा अश्क मिरा मम्बा-ए-तूफ़ाँ न हुआ

गो तवज्जोह से ज़माने की जहाँ में मुझ को
जाह-ओ-सर्वत का मयस्सर सर-ओ-सामाँ न हुआ

शुक्र-सद-शुक्र कि मैं ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी के सबब
किसी उन्वान में हम-चश्म-ए-अज़ीज़ाँ न हुआ

बर्क़ मत ख़ोशे की और अपनी बयाँ कर सोहबत
शुक्र कर ये कि मिरा वाँ दिल-ए-सोज़ाँ न हुआ

दिल-ए-बे-रहम गया शैख़ लिए ज़ेर-ए-ज़मीं
मर गया पर ये कुहन गब्र-मुसलमाँ न हुआ

कौन सी रात ज़माने में गई जिस में 'मीर'
सीना-ए-चाक से मैं दस्त-ओ-गरेबाँ न हुआ