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पल में जहाँ को देखते मेरे डुबो चुका | शाही शायरी
pal mein jahan ko dekhte mere Dubo chuka

ग़ज़ल

पल में जहाँ को देखते मेरे डुबो चुका

मीर तक़ी मीर

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पल में जहाँ को देखते मेरे डुबो चुका
इक वक़्त में ये दीदा भी तूफ़ान रो चुका

अफ़्सोस मेरे मुर्दे पर इतना न कर कि अब
पछताना यूँ ही सा है जो होना था हो चुका

लगती नहीं पलक से पलक इंतिज़ार में
आँखें अगर यही हैं तो भर नींद सो चुका

यक चश्मक-ए-प्याला है साक़ी बहार-ए-उम्र
झपकी लगी कि दूर ये आख़िर ही हो चुका

मुमकिन नहीं कि गुल करे वैसी शगुफ़्तगी
उस सरज़मीं में तुख़्म-ए-मोहब्बत मैं बो चुका

पाया न दिल बहाया हुआ सैल-ए-अश्क का
मैं पंजा-ए-मिज़ा से समुंदर बिलो चुका

हर सुब्ह हादसे से ये कहता है आसमाँ
दे जाम-ए-ख़ून 'मीर' को गर मुँह वो धो चुका