पल में जहाँ को देखते मेरे डुबो चुका
इक वक़्त में ये दीदा भी तूफ़ान रो चुका
अफ़्सोस मेरे मुर्दे पर इतना न कर कि अब
पछताना यूँ ही सा है जो होना था हो चुका
लगती नहीं पलक से पलक इंतिज़ार में
आँखें अगर यही हैं तो भर नींद सो चुका
यक चश्मक-ए-प्याला है साक़ी बहार-ए-उम्र
झपकी लगी कि दूर ये आख़िर ही हो चुका
मुमकिन नहीं कि गुल करे वैसी शगुफ़्तगी
उस सरज़मीं में तुख़्म-ए-मोहब्बत मैं बो चुका
पाया न दिल बहाया हुआ सैल-ए-अश्क का
मैं पंजा-ए-मिज़ा से समुंदर बिलो चुका
हर सुब्ह हादसे से ये कहता है आसमाँ
दे जाम-ए-ख़ून 'मीर' को गर मुँह वो धो चुका
ग़ज़ल
पल में जहाँ को देखते मेरे डुबो चुका
मीर तक़ी मीर