पैग़ाम ग़म-ए-जिगर का गुलज़ार तक न पहुँचा
नाला मिरा चमन की दीवार तक न पहुँचा
उस आईने के मानिंद ज़ंगार जिस को खावे
काम अपना उस के ग़म में दीदार तक न पहुँचा
जों नक़्श-ए-पा है ग़ुर्बत हैरान-कार उस की
आवारा हो वतन से जो यार तक न पहुँचा
लबरेज़ शिकवा थे हम लेकिन हुज़ूर तेरे
कार-ए-शिकायत अपना गुफ़्तार तक न पहुँचा
ले चश्म-ए-नम-रसीदा पानी चुवाने कोई
वक़्त-ए-अख़ीर उस के बीमार तक न पहुँचा
ये बख़्त-ए-सब्ज़ देखो बाग़-ए-ज़माना में से
पज़मुर्दा गुल भी अपनी दस्तार तक न पहुँचा
मस्तूरी ख़ूब-रूई दोनों न जम्अ' होवें
ख़ूबी का काम किस की इज़हार तक न पहुँचा
यूसुफ़ से ले के ता-गुल फिर गुल से ले के ता-शम्मा
ये हुस्न किस को ले कर बाज़ार तक न पहुँचा
अफ़्सोस 'मीर' वे जो होने शहीद आए
फिर काम उन का उस की तलवार तक न पहुँचा
ग़ज़ल
पैग़ाम ग़म-ए-जिगर का गुलज़ार तक न पहुँचा
मीर तक़ी मीर