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समझे थे 'मीर' हम कि ये नासूर कम हुआ | शाही शायरी
samjhe the mir hum ki ye nasur kam hua

ग़ज़ल

समझे थे 'मीर' हम कि ये नासूर कम हुआ

मीर तक़ी मीर

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समझे थे 'मीर' हम कि ये नासूर कम हुआ
फिर उन दिनों मैं दीदा-ए-ख़ूँ-बार नम हुआ

आए ब-रंग-ए-अब्र अरक़-नाक तुम उधर
हैरान हूँ कि आज किधर को करम हुआ

तुझ बिन शराब पी के मूए सब तिरे ख़राब
साक़ी बग़ैर तेरे उन्हें जाम-ए-सम हुआ

काफ़िर हमारे दिल की न पूछ अपने इश्क़ में
बैत-उल-हराम था सो वो बैतुस-सनम हुआ

ख़ाना-ख़राब किस का किया तेरी चश्म ने
था कौन यूँ जिसे तू नसीब एक दम हुआ

तलवार किस के ख़ून में सर डूब है तिरी
ये किस अजल-रसीदा के घर पर सितम हुआ

आई नज़र जो गोर सुलैमाँ की एक रोज़
कूचे पर उस मज़ार के था ये रक़म हुआ

का-ए-सर-कशाँ जहान में खींचा था में भी सर
पायान-ए-कार मोर की ख़ाक-ए-क़दम हुआ

अफ़्सोस की भी चश्म थी उन से ख़िलाफ़-ए-अक़्ल
बार-ए-इलाक़ा से तो अबस पुश्त-ए-ख़म हुआ

अहल-ए-जहाँ हैं सारे तिरे जीते-जी तलक
पूछेंगे भी न बात जहाँ तो अदम हुआ

क्या क्या अज़ीज़ दोस्त मिले 'मीर' ख़ाक में
नादान याँ कसो का कसो को भी ग़म हुआ