ख़त से वो ज़ोर सफ़ा-ए-हुस्न अब कम हो गया 
चाह-ए-यूसुफ़ था ज़क़न सो चाह-ए-रुसतम हो गया 
सीना-कोबी-ए-संग से दिल-ए-ख़ून होने में रही 
हक़-ब-जानिब था हमारे सख़्त मातम हो गया 
एक सा आलम नहीं रहता है उस आलम के बीच 
अब जहाँ कोई नहीं याँ एक आलम हो गया 
आँख के लड़ते तिरी आशोब सा बरपा हुआ 
ज़ुल्फ़ के दिरहम हुए इक जम्अ' बरहम हो गया 
उस लब-ए-जाँ-बख़्श की हसरत ने मारा जान से 
आब-ए-हैवाँ यमन-ए-तालेअ' से मिरे सम हो गया 
वक़्त तब तक था तो सज्दा मस्जिदों में कुफ़्र था 
फ़ाएदा अब जब कि क़द मेहराब सा ख़म हो गया 
इश्क़ उन शहरी ग़ज़ालों का जुनूँ को अब खिंचा 
वहशत-ए-दिल बढ़ गई आराम-ए-जाँ रम हो गया 
जी खिंचे जाते हैं फ़र्त-ए-शौक़ से आँखों की और 
जिन ने देखा एक-दम उस को सो बे-दम हो गया 
हम ने जो कुछ उस से देखा सो ख़िलाफ़-ए-चश्म-ए-दाशत 
अपना इज़राईल वो जान मुजस्सम हो गया 
क्या कहूँ क्या तरहें बदलें चाह ने आख़िर को 'मीर' 
था गिरह जो दर्द छाती में सो अब ग़म हो गया
        ग़ज़ल
ख़त से वो ज़ोर सफ़ा-ए-हुस्न अब कम हो गया
मीर तक़ी मीर

