करते ही नहीं तर्क-ए-बुताँ तौर-ए-जफ़ा का 
शायद हमीं दिखलावेंगे दीदार ख़ुदा का 
है अब्र की चादर शफ़क़ी जोश से गुल के 
मयख़ाने के हाँ देखिए ये रंग हवा का 
बहुतेरी गिरो जिंस-कुलालों के पड़ी है 
क्या ज़िक्र है वाइ'ज़ के मुसल्ला-ओ-रिदा का 
मर जाएगा बातों में कोई ग़म-ज़दा यूँ ही 
हर लहज़ा न हो मुम्तहिन अरबाब-ए-वफ़ा का 
तदबीर थी तस्कीं के लिए लोगों की वर्ना 
मा'लूम था मुद्दत से हमें नफ़ा दवा का 
हाथ आईना-रूयों से उठा बैठें न क्यूँकर 
बिल-अकस असर पाते थे हम अपनी दुआ का 
आँख उस की नहीं आईने के सामने होती 
हैरत-ज़दा हूँ यार की मैं शर्म-ओ-हया का 
बरसों से तू यूँ है कि घटा जब उमँड आई 
तब दीदा-ए-तर से भी हुआ एक झड़ाका 
आँख उस से नहीं उठने की साहब नज़रों की 
जिस ख़ाक पे होगा असर उस की कफ़-ए-पा का 
तलवार के साए ही में काटे है तो ऐ 'मीर' 
किस दिल-ज़दा को हुए है ये ज़ौक़ फ़ना का
        ग़ज़ल
करते ही नहीं तर्क-ए-बुताँ तौर-ए-जफ़ा का
मीर तक़ी मीर

