क्या क्या बैठे बिगड़ बिगड़ तुम पर हम तुम से बनाए गए 
चुपके बातें उठाए गए सर गाड़े वो हैं आए गए 
उट्ठे नक़ाब जहाँ से यारब जिस से तकल्लुफ़ बीच में है 
जब निकले उस राह से हो कर मुँह तुम हम से छुपाए गए 
कब कब तुम ने सच नहीं मानीं झूटी बातें ग़ैरों की 
तुम हम को यूँ ही जलाए गए वे तुम को वो हैं लगाए गए 
सुब्ह वो आफ़त उठ बैठा था तुम ने न देखा सद अफ़्सोस 
क्या क्या फ़ित्ने सर जोड़े पलकों के साए साए गए 
अल्लाह रे ये दीदा-दराई हूँ न मुकद्दर क्यूँके हम 
आँखें हम से मिलाए गए फिर ख़ाक में हम को मिलाए गए 
आग में ग़म की हो के गुदाज़ाँ जिस्म हुआ सब पानी सा 
या'नी बिन इन शोला-रुख़ों के ख़ूब ही हम भी ताए गए 
टुकड़े टुकड़े करने की भी हद एक आख़िर होती है 
कुश्ते उस की तेग़-ए-सितम के गोर तईं कब लाए गए 
ख़िज़्र जो मिल जाता है गाहे आप को भूला ख़ूब नहीं 
खोए गए उस राह के वर्ना काहे को फिर पाए गए 
मरने से क्या 'मीर'-जी-साहब हम को होश थे क्या करिए 
जी से हाथ उठाए गए पर उस से दिल न उठाए गए
        ग़ज़ल
क्या क्या बैठे बिगड़ बिगड़ तुम पर हम तुम से बनाए गए
मीर तक़ी मीर

