ख़ंजर-ब-कफ़ वो जब से सफ़्फ़ाक हो गया है 
मुल्क इन सितम-ज़दों का सब पाक हो गया है 
जिस से उसे लगाऊँ रूखा ही हो मिले है 
सीने में जल कर अज़-बस दिल ख़ाक हो गया है 
क्या जानों लज़्ज़त-ए-दर्द उस की जराहतों की 
ये जानों हूँ कि सीना सब चाक हो गया है 
सोहबत से इस जहाँ की कोई ख़लास होगा 
इस फ़ाहिशा पे सब को इमसाक हो गया है 
दीवार कोहना है ये मत बैठ उस के साए 
उठ चल कि आसमाँ तो का वाक हो गया है 
शर्म-ओ-हया कहाँ की हर बात पर है शमशीर 
अब तो बहुत वो हम से बेबाक हो गया है 
हर हर्फ़ बस-कि रोया है हाल पर हमारे 
क़ासिद के हाथ में ख़त नमनाक हो गया है 
ज़ेर-ए-फ़लक भला तो रोवे है आप को 'मीर' 
किस किस तरह का आलम याँ ख़ाक हो गया है
        ग़ज़ल
ख़ंजर-ब-कफ़ वो जब से सफ़्फ़ाक हो गया है
मीर तक़ी मीर

