नहीं वसवास जी गँवाने के
हाए रे ज़ौक़ दिल लगाने के
मेरे तग़ईर-ए-हाल पर मत जा
इत्तिफ़ाक़ात हैं ज़माने के
दम-ए-आख़िर ही क्या न आना था
और भी वक़्त थे बहाने के
इस कुदूरत को हम समझते हैं
ढब हैं ये ख़ाक में मिलाने के
बस हैं दो बर्ग-ए-गुल क़फ़स में सबा
नहीं भूके हम आब-ओ-दाने के
मरने पर बैठे हैं सुनो साहब
बंदे हैं अपने जी चलाने के
अब गरेबाँ कहाँ कि ऐ नासेह
चढ़ गया हाथ उस दिवाने के
चश्म-ए-नजम सिपहर झपके है
सदक़े उस अँखड़ियाँ लड़ाने के
दिल-ओ-दीं होश-ओ-सब्र सब ही गए
आगे आगे तुम्हारे आने के
कब तू सोता था घर मरे आ कर
जागे ताला ग़रीब-ख़ाने के
मिज़ा-ए-अबरू-निगह से इस की 'मीर'
कुश्ता हैं अपने दिल लगाने के
तीर-ओ-तलवार-ओ-सैल यकजा हैं
सारे अस्बाब मार जाने के
ग़ज़ल
नहीं वसवास जी गँवाने के
मीर तक़ी मीर