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नहीं वसवास जी गँवाने के | शाही शायरी
nahin waswas ji ganwane ke

ग़ज़ल

नहीं वसवास जी गँवाने के

मीर तक़ी मीर

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नहीं वसवास जी गँवाने के
हाए रे ज़ौक़ दिल लगाने के

मेरे तग़ईर-ए-हाल पर मत जा
इत्तिफ़ाक़ात हैं ज़माने के

दम-ए-आख़िर ही क्या न आना था
और भी वक़्त थे बहाने के

इस कुदूरत को हम समझते हैं
ढब हैं ये ख़ाक में मिलाने के

बस हैं दो बर्ग-ए-गुल क़फ़स में सबा
नहीं भूके हम आब-ओ-दाने के

मरने पर बैठे हैं सुनो साहब
बंदे हैं अपने जी चलाने के

अब गरेबाँ कहाँ कि ऐ नासेह
चढ़ गया हाथ उस दिवाने के

चश्म-ए-नजम सिपहर झपके है
सदक़े उस अँखड़ियाँ लड़ाने के

दिल-ओ-दीं होश-ओ-सब्र सब ही गए
आगे आगे तुम्हारे आने के

कब तू सोता था घर मरे आ कर
जागे ताला ग़रीब-ख़ाने के

मिज़ा-ए-अबरू-निगह से इस की 'मीर'
कुश्ता हैं अपने दिल लगाने के

तीर-ओ-तलवार-ओ-सैल यकजा हैं
सारे अस्बाब मार जाने के