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फिर उस से तरह कुछ जो दा'वे की सी डाली है | शाही शायरी
phir us se tarah kuchh jo dawe ki si Dali hai

ग़ज़ल

फिर उस से तरह कुछ जो दा'वे की सी डाली है

मीर तक़ी मीर

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फिर उस से तरह कुछ जो दा'वे की सी डाली है
क्या ताज़ा कोई गुल ने अब शाख़ निकाली है

सच पूछो तो कब हैगा उस का सा दहन ग़ुंचा
तस्कीं के लिए हम ने इक बात बना ली है

देही को न कुछ पूछो इक भरत का है गड़वा
तरकीब से क्या कहिए साँचे में की ढाली है

हम क़द्द-ए-ख़मीदा से आग़ोश हुए सारे
पर फ़ाएदा तुझ से तो आग़ोश वो ख़ाली है

इज़्ज़त की कोई सूरत दिखलाई नहीं देती
चुप रहिए तो चश्मक है कुछ कहिए तो गाली है

दो-गाम के चलने में पामाल हुआ आलम
कुछ सारी ख़ुदाई से वो चाल निराली है

हैगी तो दो साला पर है दुख़्तर-ए-रज़ आफ़त
क्या पीर-ए-मुग़ाँ ने भी इक छोकरी पाली है

ख़ूँ-रेज़ी में हम सों की जो ख़ाक बराबर हैं
कब सर तो फ़रो लाया हिम्मत तिरी आली है

जब सर चढ़े हों ऐसे तब इश्क़ करें सो भी
जूँ तूँ ये बला सर से फ़रहाद ने टाली है

इन मुग़्बचों में ज़ाहिद फिर सर ज़दा मत आना
मिंदील तिरी अब के हम ने तो बचा ली है

क्या 'मीर' तू रोता है पामाली-ए-दिल ही को
उन लौंडों ने तो दिल्ली सब सर पे उठा ली है