कहाँ तक ग़ैर जासूसी के लेने को लगा आवे 
इलाही इस बला-ए-ना-गहाँ पर भी बला आवे 
रुका जाता है जी अंदर ही अंदर आज गर्मी से 
बला से चाक ही हो जावे सीना टुक हवा आवे 
तिरा आना ही अब मरकूज़ है हम को दम-ए-आख़िर 
ये जी सदक़े किया था फिर न आवे तन में या आवे 
ये रस्म-ए-आमद-ओ-रफ़्त-ए-दयार-ए-इश्क़ ताज़ा है 
हँसी वो जाए मेरी और रोना यूँ चला आवे 
असीरी ने चमन से मेरी दिल-गर्मी को धो डाला 
वगर्ना बर्क़ जा कर आशियाँ मेरा जला आवे 
उमीद-ए-रहम उन से सख़्त ना-फ़हमी है आशिक़ की 
ये बुत संगीं-दिली अपनी न छोड़ें गर ख़ुदा आवे 
ये फ़न्न-ए-इश्क़ है आवे उसे तीनत में जिस की हो 
तू ज़ाहिद-ए-पीर-ए-ना-बालिग़ है बे तह तुझ को क्या आवे 
हमारे दिल में आने से तकल्लुफ़ ग़म को बेजा है 
ये दौलत-ख़ाना है उस का वो जब चाहे चला आवे 
ब-रंग-ए-बू-ए-ग़ुंचा उम्र इक ही रंग में गुज़रे 
मयस्सर 'मीर'-साहिब गर दिल बे-मुद्दआ आवे
        ग़ज़ल
कहाँ तक ग़ैर जासूसी के लेने को लगा आवे
मीर तक़ी मीर

