करे क्या कि दिल भी तो मजबूर है
ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है
जरस-ए-राह में जुमला-तन शोर है
मगर क़ाफ़िले से कोई दूर है
तमन्ना-ए-दिल के लिए जान दी
सलीक़ा हमारा तो मशहूर है
न हो किस तरह फ़िक्र अंजाम कार
भरोसा है जिस पर सो मग़रूर है
पलक की स्याही में है वो निगाह
कसो का मगर ख़ून मंज़ूर है
दिल अपना निहायत है नाज़ुक-मिज़ाज
गिरा गर ये शीशा तो फिर चूर है
कहीं जो तसल्ली हुआ हो ये दिल
वही बे-क़रारी ब-दस्तूर है
न देखा कि लोहू थंबा हो कभू
मगर चश्म-ए-ख़ूँ-बार नासूर है
तनिक गर्म तू संग-रेज़े को देख
निहाँ उस में भी शोला-ए-तूर है
बहुत सई करिए तो मर रहिए 'मीर'
बस अपना तो इतना ही मक़्दूर है

ग़ज़ल
करे क्या कि दिल भी तो मजबूर है
मीर तक़ी मीर