पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए
अब सुब्ह होने आई है इक दम तो सोइए
रुख़्सार उस के हाए रे जब देखते हैं हम
आता है जी में आँखों को उन में गड़ोइए
इख़्लास दिल से चाहिए सज्दा नमाज़ में
बे-फ़ाएदा है वर्ना जो यूँ वक़्त खोइए
किस तौर आँसुओं में नहाते हैं ग़म-कशाँ
इस आब-ए-गर्म में तो न उँगली डुबोइए
मतलब को तो पहुँचते नहीं अंधे के से तौर
हम मारते फिरे हैं यू नहीं टप्पे टोइए
अब जान जिस्म-ए-ख़ाकी से तंग आ गई बहुत
कब तक इस एक टोकरी मिट्टी को ढोईए
आलूदा उस गली की जो हूँ ख़ाक से तो 'मीर'
आब-ए-हयात से भी न वे पाँव धोइए
ग़ज़ल
पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए
मीर तक़ी मीर