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पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए | शाही शायरी
piri mein kya jawani ke mausam ko roiye

ग़ज़ल

पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए

मीर तक़ी मीर

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पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए
अब सुब्ह होने आई है इक दम तो सोइए

रुख़्सार उस के हाए रे जब देखते हैं हम
आता है जी में आँखों को उन में गड़ोइए

इख़्लास दिल से चाहिए सज्दा नमाज़ में
बे-फ़ाएदा है वर्ना जो यूँ वक़्त खोइए

किस तौर आँसुओं में नहाते हैं ग़म-कशाँ
इस आब-ए-गर्म में तो न उँगली डुबोइए

मतलब को तो पहुँचते नहीं अंधे के से तौर
हम मारते फिरे हैं यू नहीं टप्पे टोइए

अब जान जिस्म-ए-ख़ाकी से तंग आ गई बहुत
कब तक इस एक टोकरी मिट्टी को ढोईए

आलूदा उस गली की जो हूँ ख़ाक से तो 'मीर'
आब-ए-हयात से भी न वे पाँव धोइए