रहे ख़याल तनिक हम भी रू-सियाहों का
लगे हो ख़ून बहुत करने बे-गुनाहों का
नहीं सितारे ये सूराख़ पड़ गए हैं तमाम
फ़लक हरीफ़ हुआ था हमारी आहों का
गली में उस की फटे कपड़ों पर मिरे मत जा
लिबास-ए-फ़क़्र है वाँ फ़ख़्र बादशाहों का
तमाम ज़ुल्फ़ के कूचे हैं मार-ए-पेच उस की
तुझी को आवे दिला चलना ऐसी राहों का
उसी जो ख़ूबी से लाए तुझे क़यामत में
तो हर्फ़-ए-कुन ने किया गोश दाद-ख़्वाहों का
तमाम-उम्र रहें ख़ाक ज़ेर-ए-पा उस की
जो ज़ोर कुछ चले हम इज्ज़ दस्त-गाहों का
कहाँ से तह करें पैदा ये नाज़िमान-ए-हाल
कि पोच-बाफ़ी ही है काम इन जुलाहों का
हिसाब काहे का रोज़-ए-शुमार में मुझ से
शुमार ही नहीं है कुछ मिरे गुनाहों का
तिरी जो आँखें हैं तलवार के तले भी इधर
फ़रेब-ख़ुर्दा है तू 'मीर' किन निगाहों का

ग़ज़ल
रहे ख़याल तनिक हम भी रू-सियाहों का
मीर तक़ी मीर