शश-जिहत से इस में ज़ालिम बू-ए-ख़ूँ की राह है
तेरा कूचा हम से तू कह किस की बिस्मिल-गाह है
एक निभने का नहीं मिज़्गाँ तलक बोझल हैं सब
कारवाँ लख़्त-ए-दिल-ए-हर-अश्क के हमराह है
हम जवानों को न छोड़ा उस से सब पकड़े गए
ये दो-साला दुख़्तर-ए-रज़ किस क़दर शत्ताह है
पा-बरहना ख़ाक सर में मू परेशाँ सीना चाक
हाल मेरा देखने आ तेरे ही दिल-ख़्वाह है
इस जुनूँ पर 'मीर' कोई भी फिरे है शहर में
जादा-ए-सहरा से कर साज़िश जो तुझ से राह है
ग़ज़ल
शश-जिहत से इस में ज़ालिम बू-ए-ख़ूँ की राह है
मीर तक़ी मीर