याँ सरकशाँ जो साहब-ए-ताज ओ लवा हुए
पामाल हो गए तो न जाना कि क्या हुए
देखी न एक चश्मक-ए-गुल भी चमन में आह
हम आख़िर बहार-ए-क़फ़स से रहा हुए
पछताओगे बहुत जो गए हम जहाँ से
आदम की क़दर होती है ज़ाहिर जुदा हुए
तुझ बिन दिमाग़ सोहबत-ए-अहल-ए-चमन न था
गुल वा हुए हज़ार वले हम न वा हुए
सर दे के 'मीर' हम ने फ़राग़त की इश्क़ में
ज़िम्मे हमारे बोझ था बारे अदा हुए
ग़ज़ल
याँ सरकशाँ जो साहब-ए-ताज ओ लवा हुए
मीर तक़ी मीर