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मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है | शाही शायरी
mat ho maghrur ai ki tujh mein zor hai

ग़ज़ल

मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है

मीर तक़ी मीर

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मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है
याँ सुलैमाँ के मुक़ाबिल मोर है

मर गए पर भी है सौलत फ़क़्र की
चश्म-ए-शीर अपना चराग़-ए-गोर है

जब से काग़ज़-बाद का है शौक़ उसे
एक आलम उस के ऊपर डोर है

रहनुमाई शैख़ से मत चश्म रख
वाए वो जिस का असा कश-कोर है

ले ही जाती है ज़र-ए-गुल को उड़ा
सुब्ह की भी बाव-बादी चोर है

दिल खिंचे जाते हैं सारे उस तरफ़
क्यूँके कहिए हक़ हमारी ओर है

था बला हंगामा-आरा 'मीर' भी
अब तलक गलियों में उस का शोर है