मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है
याँ सुलैमाँ के मुक़ाबिल मोर है
मर गए पर भी है सौलत फ़क़्र की
चश्म-ए-शीर अपना चराग़-ए-गोर है
जब से काग़ज़-बाद का है शौक़ उसे
एक आलम उस के ऊपर डोर है
रहनुमाई शैख़ से मत चश्म रख
वाए वो जिस का असा कश-कोर है
ले ही जाती है ज़र-ए-गुल को उड़ा
सुब्ह की भी बाव-बादी चोर है
दिल खिंचे जाते हैं सारे उस तरफ़
क्यूँके कहिए हक़ हमारी ओर है
था बला हंगामा-आरा 'मीर' भी
अब तलक गलियों में उस का शोर है
ग़ज़ल
मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है
मीर तक़ी मीर