कली कहते हैं उस का सा दहन है
सुना करिए कि ये भी इक सुख़न है
टपकते दर्द हैं आँसू की जागा
इलाही चश्म या ज़ख़्म-ए-कुहन है
ख़बर ले पीर-ए-कनआँ' की कि कुछ आज
निपट आवारा बू-ए-पैरहन है
नहीं दामन में लाला बे-सुतूँ के
कोई दिल-ए-दाग़ ख़ून-ए-कोहकन है
शहादत-गाह है बाग़-ए-ज़माना
कि हर गुल उस में इक ख़ूनीं-कफ़न है
करूँ क्या हसरत-ए-गुल को वगर्ना
दिल पर दाग़ भी अपना चमन है
जो दे आराम टक आवारगी 'मीर'
तो शाम-ए-ग़ुर्बत इक सुब्ह-ए-वतन है
ग़ज़ल
कली कहते हैं उस का सा दहन है
मीर तक़ी मीर