कल बारे हम से इस से मुलाक़ात हो गई 
दो दो बचन के होने में इक बात हो गई 
किन किन मुसीबतों से हुई सुब्ह शाम-ए-हिज्र 
सो ज़ुल्फ़ें ही बनाते उसे रात हो गई 
गर्दिश निगाह-ए-मस्त की मौक़ूफ़ साक़िया 
मस्जिद तो शैख़ जी की ख़राबात हो गई 
डर ज़ुल्म से कि उस की जज़ा बस शिताब है 
आया अमल में याँ कि मुकाफ़ात हो गई 
ख़ुर्शीद सा प्याला-ए-मय बे-तलब दिया 
पीर-ए-मुग़ाँ से रात करामात हो गई 
कितना ख़िलाफ़ वा'दा हुआ होगा वो कि याँ 
नव-मीदी-ओ-उम्मीद मुसावात हो गई 
आ शैख़ गफ़तगू-ए-परेशाँ पे तो न जा 
मस्ती में अब तो क़िबला-ए-हाजात हो गई 
टक शहर से निकल के मिरा गिर्या सैर कर 
गोया कि कोह-ओ-दश्त पे बरसात हो गई 
दीदार की गुरस्नगी अपनी यहीं से देख 
इक ही निगाह यारों की औक़ात हो गई 
अपने तो होंट भी न हिले उस के रू-ब-रू 
रंजिश की वज्ह 'मीर' वो क्या बात हो गई
        ग़ज़ल
कल बारे हम से इस से मुलाक़ात हो गई
मीर तक़ी मीर

