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रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी | शाही शायरी
rahi na-gufta mere dil mein dastan meri

ग़ज़ल

रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी

मीर तक़ी मीर

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रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी
न उस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी

ब-रंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तन्हा
ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी

तिरे न आज के आने में सुब्ह के मुझ पास
हज़ार जाए गई तब-ए-बद-गुमाँ मेरी

वो नक़्श-ए-पै हूँ मैं मिट गया हो जो रह में
न कुछ ख़बर है न सुध हैगी रह-रवाँ मेरी

शब उस के कूचे में जाता हूँ इस तवक़्क़ो' पर
कि एक दोस्त है वाँ ख़्वाब पासबाँ मेरी

उसी से दूर रहा असल मुद्दआ' जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह राएगाँ मेरी

तिरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का
गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी

नहीं है ताब-ओ-तवाँ की जुदाई का अंदोह
कि ना-तवानी बहुत है मिज़ाज-दाँ मेरी

रहा मैं दर-ए-पस-ए-दीवार-ए-बाग़ मुद्दत लेक
गई गुलों के न कानों तलक फ़ुग़ाँ मेरी

हुआ हूँ गिर्या-ए-ख़ूनीं का जब से दामन-गीर
न आस्तीन हुई पाक दोस्ताँ मेरी

दिया दिखाई मुझे तो इसी का जल्वा 'मीर'
पड़ी जहान में जा कर नज़र जहाँ मेरी