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तिरी अब्रू-ओ-तेग़ तेज़ तो हम-दम हैं ये दोनों | शाही शायरी
teri abru-o-tegh tez to ham-dam hain ye donon

ग़ज़ल

तिरी अब्रू-ओ-तेग़ तेज़ तो हम-दम हैं ये दोनों

मीर तक़ी मीर

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तिरी अब्रू-ओ-तेग़ तेज़ तो हम-दम हैं ये दोनों
हुए हैं दिल जिगर भी सामने रुस्तम हैं ये दोनों

न कुछ काग़ज़ में है ताने क़लम को दर्द नालों का
लिखूँ क्या इश्क़ के हालात ना-महरम हैं ये दोनों

लहू आँखों से बहते वक़्त रख लेता हूँ हाथों को
जराहत हैं अगर वे दोनों तो मरहम हैं ये दोनों

कसो चश्मे पे दरिया के दिया ऊपर नज़र रखिए
हमारे दीदा-ए-नम-दीदा क्या कुछ कम हैं ये दोनों

लब जाँ-बख़्श उस के मार ही रखते हैं आशिक़ को
अगरचे आब-ए-हैवाँ हैं व लेकिन सम हैं ये दोनों

नहीं अबरू ही माइल झुक रही है तेग़ भी इधर
हमारे किश्त-ओ-ख़ूँ में मुत्तफ़िक़ बाहम हैं ये दोनों

खुले सीने के दाग़ों पर ठहर रहते हैं कुछ आँसू
चमन में महर-वरज़ी के गुल-ओ-शबनम हैं ये दोनों

कभू दिल रुकने लगता है जिगर गाहे तड़पता है
ग़म-ए-हिज्राँ में छाती के हमारी जम हैं ये दोनों

ख़ुदा जाने कि दुनिया में मिलें उस से कि उक़्बा में
मकाँ तो 'मीर'-साहिब शोहरा-ए-आलम हैं ये दोनों