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कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में | शाही शायरी
kahe hai kohkan kar fikr meri KHasta-haali mein

ग़ज़ल

कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में

मीर तक़ी मीर

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कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में
इलाही शुक्र करता हूँ तिरी दरगाह आली में

मैं वो पज़मुर्दा सब्ज़ा हूँ कि हो कर ख़ाक से सरज़द
यकायक आ गया उस आसमाँ की पाएमाली में

तू सच कह रंग पाँ है ये कि ख़ून इश्क़-बाज़ाँ है
सुख़न रखते हैं कितने शख़्स तेरे लब की लाली में

बुरा कहना भी मेरा ख़ुश न आया उस को तो वर्ना
तसल्ली ये दिल-ए-नाशाद होता एक गाली में

मिरे उस्ताद को फ़िरदौस-ए-आ'ला में मिले जागा
पढ़ाया कुछ न ग़ैर-अज़-इश्क़ मुझ को ख़ुर्द-साली में

ख़राबी इश्क़ से रहती है दिल पर और नहीं रहता
निहायत ऐब है ये इस दयार-ए-ग़म के वाली में

निगाह-ए-चश्म पुर-ख़श्म-ए-बुताँ पर मत नज़र रखना
मिला है ज़हर ऐ दिल इस शराब-ए-पुरतगाली में

शराब-ए-ख़ून बिन तड़पूँ से दिल लबरेज़ रहता है
भरे हैं संग-रेज़े मैं नय इस मीना-ए-ख़ाली में

ख़िलाफ़ उन और ख़ूबाँ के सदा ये जी में रहता है
यही तो 'मीर' इक ख़ूबी है मा'शूक़-ए-ख़याली में