कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में
इलाही शुक्र करता हूँ तिरी दरगाह आली में
मैं वो पज़मुर्दा सब्ज़ा हूँ कि हो कर ख़ाक से सरज़द
यकायक आ गया उस आसमाँ की पाएमाली में
तू सच कह रंग पाँ है ये कि ख़ून इश्क़-बाज़ाँ है
सुख़न रखते हैं कितने शख़्स तेरे लब की लाली में
बुरा कहना भी मेरा ख़ुश न आया उस को तो वर्ना
तसल्ली ये दिल-ए-नाशाद होता एक गाली में
मिरे उस्ताद को फ़िरदौस-ए-आ'ला में मिले जागा
पढ़ाया कुछ न ग़ैर-अज़-इश्क़ मुझ को ख़ुर्द-साली में
ख़राबी इश्क़ से रहती है दिल पर और नहीं रहता
निहायत ऐब है ये इस दयार-ए-ग़म के वाली में
निगाह-ए-चश्म पुर-ख़श्म-ए-बुताँ पर मत नज़र रखना
मिला है ज़हर ऐ दिल इस शराब-ए-पुरतगाली में
शराब-ए-ख़ून बिन तड़पूँ से दिल लबरेज़ रहता है
भरे हैं संग-रेज़े मैं नय इस मीना-ए-ख़ाली में
ख़िलाफ़ उन और ख़ूबाँ के सदा ये जी में रहता है
यही तो 'मीर' इक ख़ूबी है मा'शूक़-ए-ख़याली में
ग़ज़ल
कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में
मीर तक़ी मीर