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मुस्तूजिब-ए-ज़ुलम-ओ-सितम-ओ-जौर-ओ-जफ़ा हूँ | शाही शायरी
mustujib-e-zulm-o-sitam-o-jaur-o-jafa hun

ग़ज़ल

मुस्तूजिब-ए-ज़ुलम-ओ-सितम-ओ-जौर-ओ-जफ़ा हूँ

मीर तक़ी मीर

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मुस्तूजिब-ए-ज़ुलम-ओ-सितम-ओ-जौर-ओ-जफ़ा हूँ
हर-चंद कि जलता हूँ पे सरगर्म-ए-वफ़ा हूँ

आते हैं मुझे ख़ूब से दोनों हुनर-ए-इश्क़
रोने के तईं आँधी हूँ कुढ़ने को बला हूँ

इस गुलशन-ए-दुनिया में शगुफ़्ता न हुआ मैं
हूँ ग़ुंचा-ए-अफ़्सुर्दा कि मर्दूद-ए-सबा हूँ

हम-चश्म है हर आबला-ए-पा का मिरा अश्क
अज़-बस कि तिरी राह में आँखों से चला हूँ

आया कोई भी तरह मिरे चीन की होगी
आज़ुर्दा हूँ जीने से मैं मरने से ख़फ़ा हूँ

दामन न झटक हाथ से मेरे कि सितमगर
हूँ ख़ाक-ए-सर-ए-राह कोई दम में हुआ हूँ

दिल ख़्वाह जला अब तो मुझे ऐ शब-ए-हिज्राँ
मैं सोख़्ता भी मुंतज़िर-ए-रोज़-ए-जज़ा हूँ

गो ताक़त-ओ-आराम-ओ-ख़ोर-ओ-ख़्वाब गए सब
बारे ये ग़नीमत है कि जीता तो रहा हूँ

इतना ही मुझे इल्म है कुछ मैं हूँ बहर-चीज़
मा'लूम नहीं ख़ूब मुझे भी कि मैं क्या हूँ

बेहतर है ग़रज़ ख़ामुशी ही कहने से याराँ
मत पूछो कुछ अहवाल कि मर मर के जिया हूँ

तब गर्म-ए-सुख़न कहने लगा हूँ मैं कि इक उम्र
जूँ शम्अ' सर-ए-शाम से ता-सुब्ह जला हूँ

सीना तो किया फ़ज़्ल-ए-इलाही से सभी चाक
है वक़्त-ए-दुआ 'मीर' कि अब दिल को लगा हूँ