न गया ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह जफ़ा-शआराँ 
न हुआ कि सुब्ह होवे शब-ए-तीरा रोज़गाराँ 
न कहा था ऐ रफ़ूगर तिरे टाँके होंगे ढीले 
न सिया गया ये आख़िर दिल-ए-चाक-ए-बे-क़राराँ 
हुई ईद सब ने पहने तरब-ओ-ख़ुशी के जामे 
न हुआ कि हम भी बदलें ये लिबास-ए-सोगवाराँ 
ख़तर अज़ीम में हैं मिरी आह-ओ-अश्क से सब 
कि जहान रह चुका फिर जो यही है बाद-ओ-बाराँ 
कहीं ख़ाक-ए-कू को उस की तू सबा न दीजो जुम्बिश 
कि भरे हैं इस ज़मीं में जिगर जिगर-फ़िगाराँ 
रखे ताज-ए-ज़र को सर पर चमन ज़माना में गिल 
न शगुफ़्ता हो तू इतना कि ख़िज़ाँ है ये बहाराँ 
नहीं तुझ को चश्म-ए-इबरत ये नुमूद में है वर्ना 
कि गए हैं ख़ाक में मिल कई तुझ से ताज-दाराँ 
तू जहाँ से दिल उठा याँ नहीं रस्म-ए-दर्दमंदी 
किसी ने भी यूँ न पूछा हुए ख़ाक याँ हज़ाराँ 
ये अजल से जी छुपाना मिरा आश्कार हैगा 
कि ख़राब होगा मुझ बिन ग़म-ए-इश्क़ गुल-अज़ाराँ 
ये सुना था 'मीर' हम ने कि फ़साना ख़्वाब ला है 
तिरी सर-गुज़श्त सुन कर गए और ख़्वाब याराँ
        ग़ज़ल
न गया ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह जफ़ा-शआराँ
मीर तक़ी मीर

