न फिर रक्खेंगे तेरी रह में पा हम 
गए-गुज़रे हैं आख़िर ऐसे क्या हम 
खिंचेगी कब वो तेग़-ए-नाज़ यारब 
रहे हैं देर से सर को झुका हम 
न जाना ये कि कहते हैं किसे प्यार 
रहें बे-लुत्फ़ियाँ ही याँ तो बाहम 
बने क्या ख़ाल-ओ-ज़ुल्फ़-ओ-ख़त से देखें 
हुए हैं कितने ये काफ़िर फ़राहम 
मरज़ ही इश्क़ का बे-डोल है कुछ 
बहुत करते हैं अपनी सी दवा हम 
कहीं पैवंद हूँ यारब ज़मीं के 
फिरेंगे उस से यूँ कब तक जुदा हम 
हवस थी इश्क़ करने में व-लेकिन 
बहुत नादिम हुए दिल को लगा हम 
कब आगे कोई मरता था किसी पर 
जहाँ में कर गए रस्म-ए-वफ़ा हम 
तआ'रुफ़ क्या रहा अहल-ए-चमन से 
हुए इक उम्र के पीछे रिहा हम 
मुआ जिस के लिए उस को न देखा 
न समझे 'मीर' का कुछ मुद्दआ' हम
        ग़ज़ल
न फिर रक्खेंगे तेरी रह में पा हम
मीर तक़ी मीर

