मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
मर मर के जी रहे हैं मगर सुब्ह-ओ-शाम लोग
ये भूक ये हवस ये तनज़्ज़ुल ये वहशतें
ता'मीर कर रहे हैं ये कैसा निज़ाम लोग
बर्बादियों ने मुझ को बहुत सुर्ख़-रू किया
करने लगे हैं अब तो मिरा एहतिराम लोग
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है
बिकने पे आ गया तो गिरा देंगे दाम लोग
इस अहद में अना की हिफ़ाज़त के वास्ते
फिरते हैं ले के हाथ में ख़ाली नियाम लोग
बैठे हैं ख़ुद ही पाँव में ज़ंजीर डाल कर
हैराँ हूँ बुज़दिली के हैं कितने ग़ुलाम लोग
किस किस का ए'तिबार करें शहर में 'नफ़स'
चेहरे बदल बदल के मिले हैं तमाम लोग
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ग़ज़ल
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
नफ़स अम्बालवी