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मिलता ही नहीं दर्द का पैकर कोई मुझ सा | शाही शायरी
milta hi nahin dard ka paikar koi mujh sa

ग़ज़ल

मिलता ही नहीं दर्द का पैकर कोई मुझ सा

ख़ुर्शीद रिज़वी

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मिलता ही नहीं दर्द का पैकर कोई मुझ सा
आईने में इक शख़्स है कमतर कोई मुझ सा

ईमान भी तन्हा है मिरा कुफ़्र भी तन्हा
मोमिन कोई मुझ सा है न काफ़िर कोई मुझ सा

है कौन जो इस अब्र के पर्दे में रवाँ है
दीवाना है दीवाना सरासर कोई मुझ सा

कोहसार के दामन में मिलाता है निहाँ कौन
आवाज़ से आवाज़ बराबर कोई मुझ सा

लेने नहीं देता किसी करवट मुझे आराम
इक शख़्स हटीला मिरे अंदर कोई मुझ सा

मैं टूटता तारा हूँ नज़र मुझ से मिला लो
फिर काहे को देखोगे मुकर्रर कोई मुझ सा

आईना हूँ और चेहरा-ए-'ख़ूर्शीद' पे वा हूँ
होगा कहीं क़िस्मत का सिकंदर कोई मुझ सा