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मिले वो दर्स मुझ को ज़िंदगी से | शाही शायरी
mile wo dars mujhko zindagi se

ग़ज़ल

मिले वो दर्स मुझ को ज़िंदगी से

इक़बाल आबिदी

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मिले वो दर्स मुझ को ज़िंदगी से
कि अब डरने लगा दिल दोस्ती से

ख़िरद है आख़िरी मंज़िल जुनूँ की
परेशाँ क्यूँ हो मेरी आगही से

तुम आए भी तो ग़म को साथ लाए
मिरे आँसू निकल आए ख़ुशी से

ख़ुद अपना नाम ले कर कोसता हूँ
ख़ुदी ग़ाफ़िल नहीं है बे-ख़ुदी से

ये माना मौत भी आसाँ नहीं है
मगर मुश्किल नहीं है ज़िंदगी से

ज़माना दर्स हासिल कर रहा है
तुम्हारी और हमारी ज़िंदगी से

उचटती सी नज़र 'इक़बाल' उन की
कोई मिलता हो जैसे अजनबी से