मिले हैं लोग ज़माने में बे-उसूल मुझे
किया है सूरत-ए-हालात ने मलूल मुझे
जहाँ से साहब-ए-किरदार कोई गुज़रा है
बहुत अज़ीज़ है उस रास्ते की धूल मुझे
जो हक़ की राह में ख़ुद को मिटाना जानता हो
पसंद आते हैं उस शख़्स के उसूल मुझे
मिली हैं मुझ को विरासत में कुछ अजब क़द्रें
समाज ने दिए हैं काग़ज़ी से फूल मुझे
सदा-ए-हक़ मिरी दुनिया में दब गई है मगर
नहीं शिकस्त किसी तौर भी क़ुबूल मुझे
है जो भी दिल में मिरे उस पे हो सके ज़ाहिर
हर एक बात को देना पड़ा है तूल मुझे
मैं सोचता था मिरा उस से कोई रिश्ता नहीं
किसी की याद मगर कर गई मलूल मुझे
ग़ज़ल
मिले हैं लोग ज़माने में बे-उसूल मुझे
करन सिंह करन