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मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ | शाही शायरी
milan mausamon ki saza chahta hun

ग़ज़ल

मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ

ज़ुबैर रिज़वी

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मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ
तिरे हिज्र की इंतिहा चाहता हूँ

सदाओं से महरूम अपनी गली में
बस इक तेरी आवाज़-ए-पा चाहता हूँ

किसी एक हलचल में वो साथ होता
मैं आवारा-ए-शब बुझा चाहता हूँ

गुलाबों के होंटों पे लब रख रहा हूँ
उसे देर तक सोचना चाहता हूँ

तिरी क़ुर्बतें राख होने लगी हैं
मैं अब दूरियों में जिया चाहता हूँ

कोई रहगुज़र हो कहीं का सफ़र हो
मैं हर जा तिरे नक़्श-ए-पा चाहता हूँ

बहुत दिन हुए मोर नाचे नहीं हैं
मुंडेरों पे काली घटा चाहता हूँ