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मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को | शाही शायरी
milaun kis ki aankhon se main apni chashm-e-hairan ko

ग़ज़ल

मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

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मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
अयाँ जब हर जगह देखूँ उसी के नाज़-ए-पिन्हाँ को

तुझे ऐ शम्अ क्या देखें ज़माने को दिखाना है
हमें जूँ काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा और ही चराग़ाँ को

न तन्हा कुछ यही अतफ़ाल दुश्मन हैं दिवानों के
भरे है कोह भी देखा तो याँ पत्थरों से दामाँ को

झमकते हैं सितारों की तरह सुराख़ हस्ती के
छुपाया गो कि जूँ ख़ुर्शीद में दाग़-ए-नुमायाँ को

न वाजिब ही कहा जावे न सादिक़ मुमतना उस पर
किया तश्ख़ीस कुछ हम ने न हरगिज़ शख़्स-ए-इम्काँ को