मिल सकेगी अब भी दाद-ए-आबला-पाई तो क्या
फ़ासले कम हो गए मंज़िल क़रीब आई तो क्या
है वही जब्र-ए-असीरी और वही ग़म का क़फ़स
दिल पे बन आई तो क्या ये रूह घबराई तो क्या
अपनी बे-ताबी-ए-दिल का ख़ुद तमाशा बन गए
आप की महफ़िल के बनते हम तमाशाई तो क्या
बात तो जब है कि सारा गुलिस्ताँ हँसने लगे
फ़स्ल-ए-गुल में चंद फूलों की हँसी आई तो क्या
लाओ इन बे-कैफ़ियों ही से निकालें राह-ए-कैफ़
वक़्त अब लेगा कोई पुर-कैफ़ अंगड़ाई तो क्या
कम-निगाही ने उसे कुछ और गहरा कर दिया
वो छुपाते ही रहें रंग-ए-शनासाई तो क्या
फिर ज़रा सी देर में चौंकाएगा ख़्वाब-ए-सहर
आख़िर-ए-शब जागने के बा'द नींद आई तो क्या
बेड़ियाँ वहम-ए-तअ'ल्लुक़ की नई पहना गए
दोस्त आ कर काटते ज़ंजीर तन्हाई तो क्या
शोरिश-ए-अफ़्कार से 'एजाज़' दामानदा सही
छिन सकेगी फिर भी फ़िक्र-ओ-फ़न की रा'नाई तो क्या
ग़ज़ल
मिल सकेगी अब भी दाद-ए-आबला-पाई तो क्या
एजाज़ सिद्दीक़ी