मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हाए मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं
हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सँभल जाते हैं
वो कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिंदा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं
उम्र-भर जिन की वफ़ाओं पे भरोसा कीजे
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं
इस तग़ाफ़ुल पे ये आलम कि हर इक महफ़िल से
वो भी गाते हुए 'वाली' की ग़ज़ल जाते हैं

ग़ज़ल
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
वाली आसी