मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
उम्र मेरी थी मगर उस को बसर उस ने किया
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बा'द
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया
राहबर मेरा बना गुमराह करने के लिए
मुझ को सीधे रास्ते से दर-ब-दर उस ने किया
शहर में वो मो'तबर मेरी गवाही से हुआ
फिर मुझे इस शहर में ना-मो'तबर उस ने किया
शहर को बरबाद कर के रख दिया उस ने 'मुनीर'
शहर पर ये ज़ुल्म मेरे नाम पर उस ने किया
ग़ज़ल
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
मुनीर नियाज़ी