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मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद | शाही शायरी
mere sang-e-mazar par farhad

ग़ज़ल

मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद

मीर तक़ी मीर

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मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है या उस्ताद

हम से बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल
जान के साथ है दिल-ए-नाशाद

मूँद आँखें सफ़र अदम का कर
बस है देखा न आलम-ए-ईजाद

फ़िक्र-ए-ता'मीर' में न रह मुनइम
ज़िंदगानी की कुछ भी है बुनियाद

ख़ाक भी सर पे डालने को नहीं
किस ख़राबे में हम हुए आबाद

सुनते हो टुक सुनो कि फिर मुझ बाद
न सुनोगे ये नाला ओ फ़रियाद

लगती है कुछ सुमूम सी तो नसीम
ख़ाक किस दिलजले की बर्बाद

भूला जाए है ग़म-ए-बुताँ में जी
ग़रज़ आता है फिर ख़ुदा ही याद

तेरे क़ैद-ए-क़फ़स का क्या शिकवा
नाले अपने से अपने से फ़रियाद

हर तरफ़ हैं असीर हम-आवाज़
बाग़ है घर तिरा तो ऐ सय्याद

हम को मरना ये है कि कब हों कहीं
अपनी क़ैद-ए-हयात से आज़ाद

ऐसा वो शोख़ है कि उठते सुब्ह
जाना सो जाए उस की है मो'ताद

नहीं सूरत-पज़ीर नक़्श उस का
यूँ ही तस्दीक़ खींचे है बहज़ाद

ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
चाहना तो मिरे तईं इमदाद

पर मुरव्वत कहाँ की है ऐ 'मीर'
तू ही मुझ दिलजले को कर इरशाद

ना-मुरादी हो जिस पे परवाना
वो जलाता फिरे चराग़-ए-मुराद