मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे
बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छतें आज़माते रहे
आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए
घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे
शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र
आँसुओं से इन आँखों में आते रहे
नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे
शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ 'वसीम'
लोग पीते रहे हम पिलाते रहे
ग़ज़ल
मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वसीम बरेलवी