मेरे गले से आन के प्यारा जो फिर लगे
ये अब्र ये बहार मुझे ख़ूब-तर लगे
बिन देखे उस प्यारे के आँखों ने अपना हाल
ऐसा किया है जैसे कि बाराँ का झड़ लगे
मत इस अदा ओ नाज़ से गुलशन में कर गुज़र
डरता हूँ मैं मबादा किसी की नज़र लगे
हो चार चश्म कौन सके ऐसे यार से
आँखों के देखते ही पिया की ख़तर लगे
हर लैल ओ हर नहार तिरी ज़ात-ए-पाक से
कहता है 'आफ़्ताब' दुआ-ए-सहर लगे
ग़ज़ल
मेरे गले से आन के प्यारा जो फिर लगे
आफ़ताब शाह आलम सानी