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मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले | शाही शायरी
mere ehsas ki rag rag mein samane wale

ग़ज़ल

मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले

सलीम शाहिद

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मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले
अब कहाँ हैं मुझे दिन-रात सताने वाले

देख लेते हैं मगर आँख चुरा जाते हैं
दोस्त हर वक़्त मुझे पास बिठाने वाले

बंद पानी की तरह बेकस-ओ-मजबूर हैं अब
तुंद मौजों की तरह शोर मचाने वाले

एक पत्थर भी सर-ए-राहगुज़र रक्खा है
रात गहरी है ज़रा ध्यान से जाने वाले

कौन बुझते हुए सूरज की तरफ़ देखेगा
हैं उजालों के तलबगार ज़माने वाले

हार के बैठ गए धूप की आग़ोश में ख़ुद
सर्द रातों में मिरा जिस्म जलाने वाले

गिर गए रेत की दीवार हो जैसे 'शाहिद'
बन के कोहसार मिरी राह में आने वाले